विज्ञान परक भारतीय कालगणना

 चैत्र मास शुक्ल पक्ष में ब्रह्मा जी ने सृष्टि की संरचना करते हुए सूर्य, चन्द्रमा,पृथ्वी आदि का सृजन किया और और उनकी गति को आधार बनाकर कालगणना प्रारंभ की। 

दिनमान तथा ऋतु परिवर्तन:- पृथ्वी अपनी धुरी पर 1600 कि मी प्रति घण्टे की गति से परिभ्रमण करती हुई सूर्य की परिक्रमा करती हुई अपना झुकाव दो बार परिवर्तित करती है जो क्रमश:उत्तर तथा दक्षिण अयन कहलाते हैं।उत्तरायण का प्रारंभ मकर स॔क्रांति से तथा दक्षिणायन का आरम्भ कर्क संक्रांति से होता है।

दिन-रात का प्रवर्तन तथा ॠतु परिवर्तन पृथ्वी के अक्ष- परिभ्रमण के परिणाम हैं।अक्ष की प्रवणता शून्य से लेकर 23अंश 30कला तक होती है,इसे क्रान्ति भी कहते हैं।अक्ष की स्थिति ऐसी है कि ग्रीष्मकाल में पृथ्वी का उत्तरी भाग सूर्य के सम्मुख रहता है और शिशिर ऋतु में दक्षिणार्ध सूर्य के सामने होता है।विभिन्न ॠतुओं में क्रान्ति के परिवर्तन के कारण ही पृथ्वी पर सूर्य की किरणें विभिन्न कोणों पर पड़ती हैं।कोणीय भेद के कारण तापमान में परिवर्तन होता है।ग्रीष्म ॠतु में सूर्य की किरणें पृथ्वी पर सीधी पड़ने से गर्मी अधिक पड़ती है और शिशिर ॠतु में सूर्य की किरणें वक्र भाव से पृथ्वी पर पड़ने के कारण ही सर्दी अधिक होती है।

सप्ताह दिवसों का नामकरण:- भारतीय कालगणना के अनुसार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय दिवस या वार कहलाता है।अत:जिस वार को जो दिन होता है रात्रि भी उसी वार की होती है 

पाश्चात्य कालगणना में यह वार मध्य रात्रि 12 बजे बदल जाता है। 

वारों का निर्धारण करने के लिए सूर्य को केन्द्र मानकर उनकी दूरी के आधार पर उसका क्रम सुनिश्चित करने से क्रमश: रवि,बुध, शुक्र,चन्द्रमा सहित पृथ्वी,मंगल,गुरु एवं शनि हैं।चूंकि पृथ्वी ब्रह्मांड के ग्रहों से प्रसारित रश्मियों को ग्रहण करती है इसलिए मूल्यांकन पृथ्वी को केन्द्र मानकर करना होगा। अत:चन्द्रमा सहित पृथ्वी के स्थान पर सूर्य और सूर्य के स्थान पर चन्द्रमा सहित पृथ्वी को रखने से ग्रहों की जो स्थिति बनती है उसमें चन्द्रमा सहित पृथ्वी से आरम्भ होकर पहले बुध फिर शुक्र क्रमश: रवि,मंगल,गुरु और शनि होंगे।सृष्टि के आरम्भ में दिन का नाम रविवार पड़ा।24 होराओं या घण्टों में सात ग्रहों की होराओं के तीन चक्र पूर्ण होकर 3 होराएं शेष रहेंगी।होराओं के चतुर्थ चक्र में 22 वीं होरा मंगल की,23 वीं होरा बृहस्पति की और 24 वीं होरा शनि की होगी।फलत:एक वार पूर्ण हो गया।अब 25 वीं होरा चन्द्रमा की आने से रविवार के उपरांत अगला दिन सोमवार होगा।इस प्रकार क्रम में मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार और शनिवार मास दिन की प्रथम होरा के अधिपति के नाम पर निर्धारित हुए। 

पृथ्वी पर दिनों के नामकरण में यह स्पष्ट किया गया है कि पृथ्वी के नाम पर किसी दिवस का नामकरण नहीं किया जाएगा। क्योंकि पृथ्वी इस ब्रह्मांड के ग्रहों से प्रसारित रश्मियों को ग्रहण करती है।लेकिन पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा को इस नामकरण में स्थान दिया गया है क्योंकि पृथ्वी के निकटस्थ होने के कारण चन्द्रमा ब्रह्मांड की रश्मियों को पृथ्वी तक पहुंचाने में संचार उपग्रह का कार्य सम्पादित करता है और उससे मानवीय जीवन अत्यंत प्रभावित होता है। 

तिथि,मास एवं वर्षमान:- एक मास में 30 तिथियां होती है।चन्द्रमा एवं सूर्य कै भोग्यांशों के अन्तर से तिथि ज्ञात होती है।जब यह अन्तर 0-12 अंश के मध्य होता है तो प्रतिपदा, 12-24 अंश के मध्य द्वितीया इसी प्रकार तृतीया, चतुर्थी,पंचमी,षष्ठी,सप्तमी,अष्टमी,नवमी,दशमी,एकादशी,द्वादशी,त्र्योदशी,चतुर्दशी तिथियां होती हैं।शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की 15 वीं तिथि अमावस्या कही ञाती है।जो तिथि सूर्योदय काल में होती है पंचांग में वही लिखी जाती है।यदि किसी दिन सूर्योदय के समय द्वितीया हो और उस द्वितीया तिथि का मान कम हो और शीघ्र ही समाप्त होकर तृतीया लग जाए और यह भी दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ही समाप्त हो जाए तो दूसरे दिन सूर्योदय में चतुर्थी तिथि होगी और तृतीया तिथि की हानि या क्षय माना जाएगा।इसी प्रकार यदि किसी तिथि का मान 60 घटी या 24 घण्टे से अधिक हो तो दूसरे दिन सूर्योदय में वही तिथि आएगी।अत:पहले व दूसरे दिन तिथि वही रहेगी,इसे तिथि वृद्धि कहते हैं। अमावस्या के बाद चन्द्रमा मेष राशि और अश्विनी नक्षत्र में एक -एक कला बढ़ता है।हर कला को तिथि कहते हैं और बढ़ते- बढ़ते चित्रा नक्षत्र में पूर्णिमा को प्राप्त करता है अत:उस मास का नाम चित्रा नक्षत्र कै नाम पर चैत्र पड़ा। इस प्रकार जिस जिस नक्षत्र में चन्द्रमा पूर्णिमा को प्राप्त होता है उस आधार पर क्रम से 12 मास चैत्र, वैशाख,ज्येष्ठ, आषाढ़,श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष,माघ एवं फाल्गुन मास पड़े।चन्द्रमा के वृद्धि क्रम के पक्ष को शुक्ल पक्ष और ह्रास होने के क्रम के पक्ष को कृष्ण पक्ष कहते हैं।इस प्रकार 12 मास का एक वर्ष या सम्वत होता है।

 युग गणना:- भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि के आदि से सृष्टि के अंत तक का काल एक कल्प काल होता है,जिसे व्रह्म दिन भी कहते हैं।इस एक कल्प काल में 14 मनुओं का काल, एक मनुकाल में 71 महायुग, प्रत्येक महायुग में चार युगचरण, प्रत्येक युगचरण में सौरवर्षों का समावेश, प्रत्येक सौरवर्ष में दिनों एवं घण्टों का समावेश परिगणित है।इस पूरे कल्प काल में 4अरब 32करोड़ सौर वर्ष होते हैं। 

17 लाख 28 हज़ार सौर वर्ष व्यतीत होने पर सतयुग नामक प्रथम युगचरण की पूर्णता, 12 लाख 96 हज़ार सौर वर्ष व्यतीत होने पर त्रेता नामक द्वितीय युगचरण पूर्ण होता है। 8 लाख 64 हज़ार सौर वर्ष व्यतीत होने पर द्वापर नामक तृतीय युगचरण की पूर्णता तथा 4 लाख 32 हज़ार सौर वर्ष बीतने पर कलियुग नामक चतुर्थ युगचरण पूर्ण होता है। 

इन चार युगचरणों के सौर वर्ष प्रमाणों का योग एक महायुग होता है,जिसका प्रमाण सन्ध्यासन्ध्यान्श सहित 43 लाख 20 हज़ार सौर वर्ष होता है।इस प्रकार 71 महायुग व्यतीत होने पर 1 मनुकाल पूर्ण होता है जिसका प्रमाण 30,67,20,000 तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हज़ार सौर वर्ष है।
इस समय 6 मनुओं का काल पूर्ण होकर 7 वें मनुकाल के 27 महायुग व्यतीत हो चुके हैं और 28वें महायुग में सतयुग, त्रेता,द्वापर नामक तीन युगचरण पूर्ण होकर कलियुग के प्रथम चरण का 5123 वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है। आज से 22 वर्ष पूर्व "युगाब्द" 5101 वर्ष प्रतिपदा को राष्ट्र 52 वीं सदी में प्रवेश कर चुका है न कि 21 वीं सदी में।क्योंकि वर्तमान कलियुग 3102 ईसा पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकण्ड पर प्रारंभ हुआ था। 

अत:पाश्चात्य कालगणना पर आधारित 21 वीं शताब्दी का प्रचार प्रसार निश्चय ही भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण है जबकि 52वीं शताब्दी को मान्यता प्रदान करने वाली कालगणना "युगाब्द" अथवा "कलिसंवत" से सम्बद्ध होकर विशुद्ध वैज्ञानिक होने से सर्वमान्य है।

Comments